डोर ये कितनी निर्बल निकली,
भाव सरिता ये कितनी छिछली |
भूल के सारी यादे पिछली,
रस खत्म पुष्प से उड़ गयी तितली |
मन क्यों लांघे तुच्छ सीमाए,
हैं बंधी हुयी अब भी आशाएं |
अब तो कोई अपराध बताये,
जिसकी खातिर मिली सजाएं |
क्या दर्शाने को जीवन नीरसता,
रची है तुने संसारिकता |
मन में अब छाई क्यों जड़ता,
क्यों मिथ्या सपनो का पीछा करता |
खोया है जो कैसे पाऊं मैं,
अंतर है साफ़ कैसे दिखाऊँ मैं |
ईश को अपने पास चाहूँ मैं,
अंतर्द्वंद निशा में और किसे जगाऊँ मैं |
करूँ जल धार नेत्रों से निकली,
इस द्रिढ़ ह्रदय से भी ना संभली |
जुड़ी है जिससे सांसे अगली ,
डोर ये कितनी निर्बल निकली |
.........अतुल कुमार वर्मा [10-10-09]
Dor Ye Kitni Nirbal Nikli (डोर ये कितनी निर्बल निकली) | Hindi Poem
Reviewed by Atul Kumar Verma
on
मई 16, 2011
Rating:
कोई टिप्पणी नहीं: