Kuch Aur Bhi Tha Antar Me | Hindi Poem


Kuch Aur Bhi Tha Antar Me | Hindi Poem | Atul's Blog | My Digital Diary


कुछ और भी था अन्तर में , जिसको अब पहचाना है |

करुना दया परहित के बाद, स्नेह को भी जाना है |

नाजुक पंखो सा घर है मुझमे, जाने किसे बसाना है |

इस मन को जाने किसे बचाना है, जाने किसे सजाना है |


क्यों लहर सी ये दौड़े मुझमे, जगा जगा जो जाती है |

खीच खीच कर मुझे, उस बिंदु तक ले जाती है |

जहाँ से भागा मस्तक के कहने पर , दूरियां भले ना भाती हैं |

धीरे से क्यों ये चेतना, जाकर वही सिमट जाती है |


खुश था पहले भी , सब कुछ साथ साथ चलता है |

पर क्यों अब कुछ कुछ अधूरा है, मन अकेला क्यों पलता है |

हर छण क्या पूरा करने ,किस ख़ुशी के लिए लड़ता है |

क्यों ताल नही मिलते, क्यों सब अलग अलग लगता है |


जब जब मस्तक मेरे अन्तर पर कब्ज़ा कर जाये |

तब तब न जाने कौन मुझे प्रताड़ित कर जाये |

और फिर उसी स्नेहल का मुझ पर राज हो जाये |

स्वाभिमान गर्व आत्मसत्ता भुलाकर जाने क्या आनंद पाए |


अब अंतर फल रसमय परिपक्व हुआ है |

रस निरंतर क्यों बहता है,शायद किसी ने इसे छुआ है |

मुर्झाने की बात छोड़ो कितनो को ही खिलाया हुआ है |

टूटा टूटा सा फिरता हूँ , पर जोड़ू सब को यही दुआ है |


नही पता था खुद का मजाक उड़ाना अच्छा लगेगा |

शायद ये दौर भी बीत जायेगा, कुछ नया सामने आएगा |

जो दूर है दूर रह जायेगा, जो पास है वही साथ जायेगा |

फिर भी अंतर अंतिम छण तक राह चलते भी अपनी पूर्णता तलाशेगा | 


-अतुल कुमार वर्मा[1-1-10]     
Kuch Aur Bhi Tha Antar Me | Hindi Poem Kuch Aur Bhi Tha Antar Me | Hindi Poem Reviewed by Atul Kumar Verma on मई 16, 2011 Rating: 5

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