कुछ और भी था अन्तर में , जिसको अब पहचाना है |
करुना दया परहित के बाद, स्नेह को भी जाना है |
नाजुक पंखो सा घर है मुझमे, जाने किसे बसाना है |
इस मन को जाने किसे बचाना है, जाने किसे सजाना है |
क्यों लहर सी ये दौड़े मुझमे, जगा जगा जो जाती है |
खीच खीच कर मुझे, उस बिंदु तक ले जाती है |
जहाँ से भागा मस्तक के कहने पर , दूरियां भले ना भाती हैं |
धीरे से क्यों ये चेतना, जाकर वही सिमट जाती है |
खुश था पहले भी , सब कुछ साथ साथ चलता है |
पर क्यों अब कुछ कुछ अधूरा है, मन अकेला क्यों पलता है |
हर छण क्या पूरा करने ,किस ख़ुशी के लिए लड़ता है |
क्यों ताल नही मिलते, क्यों सब अलग अलग लगता है |
जब जब मस्तक मेरे अन्तर पर कब्ज़ा कर जाये |
तब तब न जाने कौन मुझे प्रताड़ित कर जाये |
और फिर उसी स्नेहल का मुझ पर राज हो जाये |
स्वाभिमान गर्व आत्मसत्ता भुलाकर जाने क्या आनंद पाए |
अब अंतर फल रसमय परिपक्व हुआ है |
रस निरंतर क्यों बहता है,शायद किसी ने इसे छुआ है |
मुर्झाने की बात छोड़ो कितनो को ही खिलाया हुआ है |
टूटा टूटा सा फिरता हूँ , पर जोड़ू सब को यही दुआ है |
नही पता था खुद का मजाक उड़ाना अच्छा लगेगा |
शायद ये दौर भी बीत जायेगा, कुछ नया सामने आएगा |
जो दूर है दूर रह जायेगा, जो पास है वही साथ जायेगा |
फिर भी अंतर अंतिम छण तक राह चलते भी अपनी पूर्णता तलाशेगा |
-अतुल कुमार वर्मा[1-1-10]
Kuch Aur Bhi Tha Antar Me | Hindi Poem
Reviewed by Atul Kumar Verma
on
मई 16, 2011
Rating:
कोई टिप्पणी नहीं: